देश, काल एवं पात्र की सीमा से स्वतंत्र परमेश्वर के सायुज्य में मनुष्य जीवन यात्रा के वर्णनातीत आनन्द का एकमात्र साधन परमेश्वर की भक्ति है। इस शाश्वत सत्य का मनुष्यमात्र के जीवन में सुगम अनुभव हो सके, एतदर्थ महर्षि शाण्डिल्य ने भक्तिसूत्रों की रचना की है। कर्म, ज्ञान, हठ, योग प्रभृति उपक्रम योग कहे गये हैं तथा इनके साधन से अन्तःकरण के दोष दूर हो जाते हैं जिससे भक्तिमार्ग में आने वाली बाधाएँ दूर हो जाती हैं। परन्तु, यहाँ तक भक्ति भी साधन ही कही गई है। अर्थात्, शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा से परमेश्वर का अभिन्न होना, परमेश्वर में परानुरक्त होना, पराभक्ति कहा गया है। भगवान एवं भक्त का अभेद स्वरूप ही भक्ति का लक्ष्यार्थ है। इस परम् सत्य का साक्षात्कारी, कर्म, ज्ञान तथा लय योग के समन्वित प्रकाशदर्शी महर्षि शाण्डिल्य की दृष्टि में भक्तियोग की उपलब्धि ही आत्मोपलब्धि, परमेश्वरोपलब्धि है। प्रस्तुत ग्रन्थ में महर्षि द्वारा निर्मित शत् सूत्रीय भक्तियोग की व्याख्या हिन्दी भाषा में की गई है जिससे सर्वहितकारी सूत्रों का परिज्ञान सामान्य मनुष्य जीव हेतु सुलभ हो सके। साथ ही द्वितीय खण्ड में सूत्रों का भावार्थ अंग्रेजी भाषा के माध्यम से भी उपलब्ध है जिससे यह अहिन्दी भाषा-भाषियों के लिए भी उपयोगी हो। सूत्रों के माध्यम से भक्तियोग साधक प्रसंग को एवं बाधक विषयों को दर्शाया गया है जो निष्कण्टक मार्ग निर्देशिका हमारे लिए सिद्ध होते हैं। भक्तियोग के सर्वांगीण विचार हमें इन सूत्रों से प्राप्त होते हैं। उनमें प्रमुख प्रसगें की चर्चा निम्नवत् हैं:
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परमेश्वर में अनुरक्ति (भक्ति) सद्यः मुक्ति है।
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परमेश्वर की भक्ति से अमृतत्त्व की प्राप्ति होती है।
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भक्त को द्वेष से सर्वथा पृथक रहना अनिवार्य है।
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निम्नगामी कुसंगतियों से दूर रहना भक्त का स्वभाव बने।
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श्रीगुरु में परमेश्वर का साकार रूप जानकर व्यवहार करें।
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भगवद्भक्तों के आचरण, उनके मार्ग का अनुसरण हों।
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ब्रह्म तथा जीव, आत्मा तथा परमात्मा, भक्त तथा भगवान अभिन्न होते हैं।
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अनन्य भक्ति परमेश्वर को सब से अधिक प्रिय हैं।
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परमेश्वर की करुणा ही ऐसी है कि वे जीव कल्याणार्थ अवतार लेते हैं।
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परमेश्वर की उर्जा, उनकी शक्ति उनसे अभिन्न हैं जिनकी महामाया से यह भौतिक जगत आकारित है वे महामायिन् एवं उनकी माया का यह दृश्यप्रपंच दोनों सत्य है।
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परमेश्वर की लीला का प्रत्येक दृश्य कल्याणकारी है।
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परमेश्वर की भक्ति का एक भी साधन पराभक्ति की उपलब्धि हेतु समर्थ है।